आर्चिस मोहन द्वारा
राष्ट्रमंडल शासनाध्यक्ष बैठक या चोगम का आयोजन 15 से 17 नवंबर, 2013 के दौरान कोलंबो में होने वाला है। ऐसा केवल दूसरी बार हो रहा है जब दक्षिण एशिया में चोगम शिखर बैठक आयोजित हो रही है। इस उपमहाद्वीप में राष्ट्रमंडल की दो तिहाई से अधिक आबादी रहती है। चोगम शिखर
बैठक में राष्ट्रमंडल के नेता प्रत्येक दो वर्ष में एक बार आपस में बैठक करते हैं तथा वैश्विक एवं राष्ट्रमंडल से जुड़े मुद्दों पर विचार - विमर्श करते हैं और भावी नीतियों एवं पहलों पर सर्वसम्मति का निर्माण करते हैं। 2013 में कोलंबो में आयोजित होने वाली चोगम
शिखर बैठक 22वीं शिखर बैठक होगी।
53 राष्ट्रमंडल शासनाध्यक्षों - यह कि क्वीन एलिजाबेथ के रूप में राष्ट्राध्यक्षों को राष्ट्रमंडल प्रमुख के रूप में नहीं माना जाता है - की बैठक ऐसे समय में हो रही है जब संगठन को अपनी प्राथमिकता के बारे में नए - नए प्रश्नों का सामना करना पड़ रहा है।
16 अक्टूबर, 1985 को नसाऊ में 8वें चोगम का एक दृश्य
राष्ट्रमंडल तथा चिंताओं से भरा इतिहास
राष्ट्रमंडल की नींव 19वीं शताब्दी के उपनिवेशवादी सिद्धांत पर आधारित है। ब्रिटिश तथा उपनिवेशी प्रधान मंत्रियों का पहला सम्मेलन 1887 में हुआ था तथा इसके बाद समय - समय पर इसका आयोजन होता रहा। आगे चलकर 1911 में इंपीरियल सम्मेलन की स्थापना हुई तथा इस संघ का
नाम 1920 के दशक में ब्रिटिश कॉमनवेल्थ रखा गया। उस समय यह ब्रिटिश साम्राज्य - यूनाइटेड किंगडम, दक्षिण अफ्रीका, कनाडा, न्यूजीलैंड, आस्ट्रेलिया और आयरलैंड के छ: ‘गोरे’ स्वशासी आयामों का एक परामर्श समूह था। ब्रिटिश क्राउन के साथ गठबंधन होना सदस्यता की पूर्वापेक्षा
थी।
1940 के दशक के उत्तरार्ध में भारत जैसे उपनिवेशों के आजाद हो जाने से इस संघ के उन्मूलन का मार्ग प्रशस्त हुआ या इसकी सदस्यता केवल एंग्लो सैक्सन संघ की मोनो एथनिक गोरी जातियों तक सीमित होने का मार्ग प्रशस्त हुआ। 1948 में एक समय यह वास्तव में एक अनोखी संभावना
के रूप में दिख रहा था जब ब्रिटिश राजनेताओं ने रिपब्लिकन आयरलैंड को ब्रिटिश कॉमनवेल्थ से बाहर निकलने की अनुमति दी क्योंकि रिपब्लिकन आयरलैंड ने क्राउन से गठबंधन के संबंध में इस संगठन के बुनियादी सिद्धांत में परिवर्तन की मांग की थी। ब्रिटिश कॉमनवेल्थ ने बर्मा
को सदस्यता प्रदान करने से इंकार कर दिया, जब इसने अपने आप को गणराज्य के रूप में घोषित कर दिया। म्यांमार एकमात्र पूर्व ब्रिटिश उपनिवेश है जो आज भी राष्ट्रमंडल का सदस्य नहीं है।
परंतु भारत जो इस ताज का रत्न है, को खोने की संभावना दर्दनाक थी जिसे बर्दाश्त करने के लिए ब्रिटेन तैयार नहीं था। भारत अपनी राय पर अडिग था कि 1950 में यह गणतंत्र बन जाएगा, जैसा कि इसकी संघटक सभा द्वारा निर्णय लिया गया था। पंडित नेहरू के नेतृत्व में भारत राष्ट्रमंडल
में शामिल होने के लाभों के प्रति भी सजग था। 1948 में पंडित नेहरू ने कहा कि ''राष्ट्रमंडल के लिए बहुत गुंजाइश है ... इसकी ताकत इसकी लोच एवं इसकी पूर्ण स्वतंत्रता में निहित है।'' उम्मीद की गई कि राष्ट्रमंडल अमेरिकी या सोवियत गुट से अपने आप को स्वतंत्र रखते
हुए तीसरी शक्ति बन सकता है।
पंडित नेहरू के फार्मूला के आधार पर ‘लंदन घोषणा’ अपनाने के लिए राष्ट्रमंडल के प्रधान मंत्रियों की 1949 में बैठक हुई तथा इस बैठक में इस बात पर सहमति हुई कि सभी सदस्य देश ''स्वतंत्र रूप से तथा समान रूप से संघ में शामिल’’ होंगे। इसका अभिप्राय यह भी था कि विशेषण
‘ब्रिटिश’ निरर्थक है। घोषणा में इस बात का उल्लेख किया गया कि राष्ट्रमंडल के सदस्य देश ''राष्ट्रमंडल के समान एवं स्वतंत्र सदस्य देश हैं जो शांति, आजादी एवं प्रगति की दिशा में स्वतंत्र रूप से आपस में सहयोग करेंगे।''
भारत ने अफ्रीका के हाल ही में स्वतंत्र हुए राष्ट्रों के लिए राष्ट्रमंडल को आकर्षक बनाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। भारत के नेतृत्व ने इस संगठन में शामिल होने के बारे में अफ्रीका के नव स्वतंत्र देशों की हिचकिचाहट को दूर करने में महत्वपूर्ण भूमिका
निभायी कि उनके पूर्व उपनिवेशी मालिकों का इस पर अब भी नियंत्रण है। परंतु शीघ्र ही अपनी सदस्यता के माध्यम से इन देशों ने राष्ट्रमंडल को नस्लीय भेदभाव के विरूद्ध युद्ध का मंच बनाया।
जो लोग राष्ट्रमंडल की प्रासंगिकता पर प्रश्नचिह्न लगाते हैं उन्हें बस यह देखने की जरूरत है कि कैसे संगठन के अश्वेत सदस्य देशों ने इसका प्रयोग रंगभेद के विरूद्ध लड़ाई के लिए किया। इन देशों ने अपने ग्लेनियगल करार के माध्यम से खेल के क्षेत्र में दक्षिण अफ्रीका
के अलगाव को 1960 के दशक के पूर्वार्ध में राष्ट्रमंडल से समाप्त करने का सुनिश्चय किया। दक्षिण अफ्रीका 1990 में राष्ट्रमंडल में वापस आया परंतु अपनी राज्य नीति के रूप में रंगभेद को त्यागने के बाद ही।
इस संगठन ने 1972 में एक और हिचक का सामना किया जब नव स्वतंत्र बंग्लादेश राष्ट्रमंडल में शामिल हुआ। पाकिस्तान, जो भारत के साथ इसके संस्थापक सदस्यों में से एक है, ने इसका विरोध किया तथा राष्ट्रमंडल से अपनी सदस्यता वापस ले ली। इस संगठन ने आबादी की दृष्टि
से अपने दूसरे सबसे बड़े देश को गंवाने पर अपनी पलक नहीं झपकायी। पाकिस्तान 1989 में पुन: इस संगठन का सदस्य बन गया।
बाद के वर्षों में, राष्ट्रमंडल ने मानवाधिकारों तथा लोकतंत्र के मुद्दों पर अचूक कदम उठाया है। मानवाधिकारों के उल्लंघन के लिए या चुनी हुई सरकारों को सत्ता से हटाने के लिए अभी हाल ही में नाइजीरिया, पाकिस्तान, फिजी और जिंबाव्बे की सदस्यता निलंबित की गई है।
हाल के वर्षों में नाइजीरिया, फिजी एवं पाकिस्तान सदस्य के रूप में वापस लौट आए हैं।
हाल के वर्षों में, मोजांबिक, रूवांडा एवं कैमरून राष्ट्रमंडल के नवीनतम सदस्य बने हैं। 2011 में, दक्षिण सूडान ने भी सदस्यता के लिए अनुरोध किया है। रोचक बात यह है कि न तो रूवांडा का और न ही मोजांबिक का पूर्व ब्रिटिश उपनिवेशी साम्राज्य से कोई प्रशासनिक संबंध
रहा है। मोजांबिक को इस संगठन में शामिल करने के लिए राष्ट्रमंडल के सदस्यता संबंधी दिशा-निर्देंशों में संशोधन की जरूरत थी।
इस समय, राष्ट्रमंडल के सदस्य के रूप में इसमें विश्व में कुछ सबसे छोटे राज्य हैं, जैसे कि तुवालू जिसकी आबादी मात्र 10,000 है। इसकी 53 सदस्यों में से 32 सदस्य छोटे राज्य हैं। राष्ट्रमंडल की ताकतों में से एक प्रशांत द्वीप तथा कैरेबियन के इन छोटे राज्यों
को भारत जैसे बड़े सदस्य देशों द्वारा तकनीकी सहायता एवं सहयोग के लिए बातचीत एवं वार्ता का सीधा मंच प्रदान करना है।
संरचना
साइप्रस में 1993 में चोगम शिखर बैठक में तत्कालीन वित्त मंत्री डा. मनमोहन सिंह ने भारत
का प्रतिनिधित्व किया
लंदन में राष्ट्रमंडल सचिवालय की स्थापना के साथ वर्ष 1965 में राष्ट्रमंडल में एक उल्लेखनीय प्रगति हुई। यह मंत्री स्तरीय बैठकों का आयोजन आदि जैसे संघ के कार्यों के प्रबंधन के लिए मुख्य अंतर्सरकारी एजेंसी है। सचिवालय की स्थापना का अभिप्राय यह है कि संघ
के मूल छ: गोरे सदस्य देशों का एकाधिकार और क्षीण हुआ तथा संगठन का प्रबंधन करने के लिए राष्ट्रमंडल के अश्वेत सदस्यों से अनेक राजनयिक आगे आए। संयुक्त राष्ट्र महासभा में सचिवालय द्वारा प्रेक्षक के रूप में राष्ट्रमंडल को प्रतिनिधित्व प्राप्त है।
सचिवालय का प्रमुख राष्ट्रमंडल महासचिव हैं। भारत के श्री कमलेश शर्मा वर्तमान महासचिव हैं तथा वह पहले भारतीय हैं जो राष्ट्रमंडल के महासचिव चुने गए हैं। इस पद पर उनका चुनाव वर्ष 2008 में हुआ था। यह उनका दूसरा कार्यकाल है। महासचिव का चयन अधिक से अधिक दो से चार
वर्ष के कार्यकाल के लिए राष्ट्रमंडल शासनाध्यक्षों द्वारा किया जाता है। महासचिव की सहायता के लिए दो उप महासचिव होते हैं। कनाडा के अर्नौल्ड स्मिथ पहले महासचिव (1965-75) थे, जिनके बाद गुयाना के श्रीदत्त रामफल (1975-90), नाइजीरिया के इमेका अन्योकू (1990-99)
और न्यूजीलैंड के डॉन मैककिन्नोन (2000-08) इसके महासचिव चुने गए।
1971 में, चोगम प्रक्रिया स्थापित की गई तथा राष्ट्रमंडल शासनाध्यक्षों की बैठक की प्रक्रिया निर्धारित की गई जो अब तक यूके में आयोजित होती रही है। पहले चोगम का आयोजन 1971 में सिंगापुर में हुआ।
राष्ट्रमंडल का कोई लिखित संविधान नहीं है, सदस्य देश परामर्श के माध्यम से निर्णय लेते हैं। इसका विश्वास है कि ''सरकारों, व्यवसाय तथा सभ्य समाज की साझेदारी के माध्यम से सर्वोत्तम लोकतंत्र प्राप्त किया जाता है’’ और यह कि ''इतिहास, भाषा एवं संस्थाओं के
बीच संबंधों के अलावा सदस्य देश लोकतंत्र, आजादी, शांति, कानून के शासन तथा सभी के लिए अवसर के संबंध में इस संघ के मूल्यों के माध्यम से एकजुट हैं।''
1971 में सिंगापुर में चोगम में इन मूल्यों पर राष्ट्रमंडल के सदस्य देशों के बीच सहमति हुई। सिंगापुर घोषणा के 14 सूत्रों ने सदस्यों को विश्व शांति, आजादी, मानवाधिकारों तथा समानता के सिद्धांतों के प्रति समर्पित किया। हरारे घोषणा के माध्यम से 1991 में हरारे
चोगम में इन सिद्धांतों की फिर से पुष्टि की गई तथा प्रवर्तित किया गया।
राष्ट्रमंडल मंत्री स्तरीय कार्य समूह (सी एम ए जी), जो 1995 में गठित 9 विदेश मंत्रियों का एक घूर्णन समूह है, इन मूल्यों की रक्षा करने तथा किसी उल्लंघन की प्रकृति का मूल्यांकन करने के लिए जिम्मेदार है। यह किसी सदस्य देश को बाहर निकालने के लिए निलंबित कर
सकता है या शासनाध्यक्षों को सिफारिश कर सकता है।
चोगम राष्ट्रमंडल की शामियाना घटना है। चोगम में दो चरणीय प्रारूप होता है - (क) कार्यकारी सत्र जहां शासनाध्यक्ष अधिक औपचारिक ढंग से आपस में बातचीत करते हैं तथा वे वक्तव्य देते हैं और इसके बाद मंत्रियों या अधिकारियों की बैठक होती है, और (ख) रिट्रीट जहां शासनाध्यक्ष
किसी सहयोगी की मौजूदगी के बिना अपने समकक्षों के साथ अनौपचारिक रूप से आपस में बातचीत करते हैं। यह रिट्रीट चोगम का एक अनोखा घटक है जिसे सार्क शिखर बैठक में भी अपनाया गया है।
चोगम में विभिन्न मुद्दों पर विचार - विमर्श किया जाता है जिसमें अंतर्राष्ट्रीय शांति एवं सुरक्षा, लोकतंत्र, अच्छा अभिशासन, संपोषणीय विकास, ऋण प्रबंधन, शिक्षा, पर्यावरण, लैंगिक समानता, स्वास्थ्य, मानवाधिकार, सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी, कानून, बहुपक्षीय
व्यापार से जुड़े मुद्दे, छोटे राज्य तथा युवा मामले शामिल होते हैं।
भारत और राष्ट्रमंडल
भारत के पहले प्रधान मंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू राष्ट्रमंडल के उद्देश्य को आगे बढ़ाने में बहुत आगे थे। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि जिस रूप में आज हम आधुनिक राष्ट्रमंडल को जानते हैं उसके बारे में यदि पंडित नेहरू ने कल्पना न की होती, तो यह शायद कभी अस्तित्व
में नहीं आ सकता था।
राष्ट्रमंडल के सबसे बड़े सदस्य देश के रूप में भारत ने एक बार चोगम की मेजबानी की है। 1983 में प्रधान मंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के नेतृत्व में चोगम की 7वीं शिखर बैठक नई दिल्ली में आयोजित की गई थी। प्रधान मंत्री डा. मनमोहन सिंह ने माल्टा (2005), यूगांडा
(2007) और त्रिनिडाड एवं टोबैगो (2009) में चोगम की शिखर बैठकों में भाग लिया। उप राष्ट्रपति श्री एम हामिद अंसारी ने 2011 में पर्थ में चोगम की पिछली शिखर बैठक में भारत का प्रतिनिधित्व किया।
23 नवंबर, 1983 को नई दिल्ली में चोगम की शिखर बैठक के दौरान राष्ट्रमंडल के सदस्य देशों
के शासनाध्यक्षों के साथ महामहिम महारानी एजिलाबेथ-II द्वितीय का ग्रुप फोटोग्राफ
भारत राष्ट्रमंडल के बजट में चौथा सबसे अधिक योगदान करने वाला देश है परंतु राष्ट्रमंडल की महत्वपूर्ण उपलब्धियों में उल्लेखनीय भूमिका निभायी है, जैसे कि 1965 में इसके सचिवालय की स्थापना, 1971 की सिंगापुर घोषणा, 1991 की हरारे घोषणा तथा 1995 में मंत्री स्तरीय
कार्य समूह की स्थापना। तथापि, भारत का सबसे उल्लेखनीय योगदान रंगभेद के विरूद्ध संघर्ष के लिए अफ्रीका के सदस्य देशों के साथ एकता स्थापित करना है।
जैसा कि तत्कालीन विदेश सचिव श्री रंजन मथई ने 2011 में कहा था कि भारत का यह मानना है कि राष्ट्रमंडल के साथ इसकी स्वाभविक साझेदारी है क्योंकि यह अंग्रेजी भाषी देशों का समुदाय है, जिनमें से सभी सदस्यों की एक साझी कानून प्रणाली है तथा उन्होंने राष्ट्रमंडल
के माध्यम से दक्षिण - दक्षिण सहयोग का बहुत कारगर ढंग से प्रबंधन एवं प्रयोग किया है।
23 नवंबर, 1983 को नई दिल्ली में चोगम के उद्घाटन से पूर्व विज्ञान भवन में राष्ट्रमंडल
के सदस्य देशों के शासनाध्यक्षों की आगवानी करते हुए राष्ट्रमंडल महासचिव श्री एस एस रामफल एवं श्रीमती इंदिरा गांधी
इन वर्षों में भारत ने राष्ट्रमंडल को विदेशों, उदाहरण के लिए फिजी में रहने वाले भारतीय मूल के लोगों के हितों की देखरेख करने के लिए एक उपयोगी मंच के रूप में पाया है। भारतीय मूल के लोगों की पर्याप्त आबादी वाले इस दक्षिण प्रशांत द्वीप में भारतीय मूल के लोगों
के नेतृत्व में चुनी गई सरकारों को सत्ता से बेदखल करने के लिए 1987 और 2000 में सैन्य विद्रोह हुए थे। दोनों अवसरों पर फिजी राष्ट्रमंडल के संगठन से बाहर आ गया था। भारतीय मूल के लोगों वाले अधिकांश देश भी राष्ट्रमंडल के सदस्य हैं।
23 नवंबर, 1983 को नई दिल्ली में चोगम के उद्घाटन के दिन विज्ञान भवन का एक आंतरिक दृश्य
परंतु न केवल भारत अपितु यूके जैसे राष्ट्रमंडल के कुछ अन्य महत्वपूर्ण सदस्य देश भी इस संगठन को फिर से जिंदा करने के लिए बहुत कर सकते हैं।
डेविड कैमरून की वर्तमान सरकार में राष्ट्रमंडल के लिए पूर्व मंत्री डेविट हॉवेल की हाल की एक पुस्तक ‘ओल्ड लिंक्स एंड न्यू टाइज : पावर एंड परसुएशन इन ऐन ऐज ऑफ नेटवर्क्स’ में राष्ट्रमंडल को फिर से सक्रिय करने में ब्रिटेन द्वारा अपनी भागीदारी करने की दलील
दी गई है। हॉवेल कहते हैं कि अपने पुराने सांस्कृतिक संबंधों एवं साझे इतिहास के माध्यम से राष्ट्रमंडल ब्रिटेन को नई व्यवस्था में अपनी भूमिका को फिर से परिभाषित करने का अवसर प्रदान करता है जहां एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के देश सत्ता एवं प्रभाव में
वृद्धि के लिए एकजुट हुए हैं।
भारत के पूर्व विदेश सचिव श्री कृष्णन श्रीनिवासन ने 2007 में ‘भारतीय विदेश नीति : चुनौतियां एवं अवसर’ में प्रकाशित अपने लेख ‘भारत और राष्ट्रमंडल’ में भारत के विदेश नीति निर्माताओं के लिए इसी तरह की दलील दी है। 1995 से 2002 तक राष्ट्रमंडल के उप महासचिव के
रूप में काम करने वाले श्रीनिवासन ने कहा कि ''आधुनिक राष्ट्रमंडल के संस्थापक सदस्य तथा इस संगठन की कुल आबादी में से 60 प्रतिशत आबादी वाले देश के रूप में भारत को राष्ट्रमंडल की गतिविधियों के संपूर्ण आयाम पर अधिक प्रभाव का प्रयोग करने में समर्थ होना चाहिए।''
श्रीनिवासन ने दलील दी है कि भारत को राष्ट्रमंडल में अपने हित एवं समय का अधिक निवेश करना चाहिए क्योंकि ''जो भी हो, राष्ट्रमंडल में जब भी भारत बोलता है तब हर कोई सुनता है। यूएन या गुट निरपेक्ष आंदोलन के मामले में किसी भी रूप में ऐसा नहीं हैं’’
आर्चिस मोहन (archis.mohan@gmail.com) StratPost.com. में विदेश नीति संपादक हैं। (यहां व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार है।)
राष्ट्रमंडल से संबंधित तथ्य :
- विश्व में सबसे बड़ा गैर क्षेत्र विशिष्ट संगठन है
- 1949 में स्थापित किया गया
- 1965 में लंदन में राष्ट्रमंडल सचिवालय स्थापित किया गया
- इस समय इसके सदस्यों की संख्या 53 है
- यहां 2.2 बिलियन लोग रहते हैं
- उप महाद्वीप से 1.5 बिलियन
- भारत इसका सबसे बड़ा सदस्य देश है तथा इसके बजट में योगदान करने वाला चौथा सबसे बड़ा देश है
- इसके 60 प्रतिशत से अधिक नागरिक 30 साल से कम आयु के हैं
- इसके सदस्यों में अफ्रीका के 18 देश, एशिया के 8 देश, अमेरिका के 3 देश, कैरेबियन के 10 देश, यूरोप के 3 देश तथा दक्षिण प्रशांत के 11 देश शामिल हैं
- नवीनतम सदस्यों में रूवांडा, कैमरून एवं मोजांबिक शामिल हैं
- मोजांबिक एवं रूवांडा ऐसे पहले सदस्य देश हैं जिनका पूर्व ब्रिटिश उपनिवेशी साम्राज्य से कोई ऐतिहासिक या प्रशासनिक संबंध नहीं रहा है
- फिजी, पाकिस्तान और दक्षिण अफ्रीका अतीत में इस संघ से बाहर निकल गए थे परंतु अब इस संगठन में वापस शामिल हो गए हैं
- जिम्बाव्वे 2003 में इस संगठन से बाहर निकल गया था परंतु अभी तक उसने अपनी सदस्य बहाल नहीं की है
- अक्टूबर, 2013 में गांबिया ने राष्ट्रमंडल से अपनी सदस्यता वापस ले ली
लिंक्स
- भारत और राष्ट्रमंडल
- 28 नवंबर, 2009 को पोर्ट ऑफ स्पेन, त्रिनिडाड एवं टोबैगो में चोगम शिखर बैठक में प्रधान मंत्री डा. मनमोहन सिंह का हस्तक्षेप
- चोगम के लिए उप राष्ट्रपति एम हामिद अंसारी की पर्थ यात्रा के अवसर पर विदेश सचिव द्वारा मीडिया वार्ता का प्रतिलेखन
- 27 नवंबर, 2009 को पोर्ट ऑफ स्पेन, त्रिनिडाड एवं टोबैगो में चोगम शिखर बैठक में प्रधान मंत्री डा. मनमोहन सिंह का हस्तक्षेप
- 21 नवंबर, 2007 को चोगम शिखर बैठक में भाग लेने के लिए कंपाला, युगांडा के लिए प्रस्थान करने के अवसर पर प्रधान मंत्री डा. मनमोहन सिंह का वक्तव्य
- राष्ट्रमंडल चार्टर