लेखक : राजदूत भास्वती मुखर्जी
भारत की संस्कृति एवं सभ्यता से जुड़ी विरासत की अंतर्राष्ट्रीय पहचान को इस माह दोहा, कतर में विश्व विरासत
समिति बैठक के 38वें सत्र में 11वीं शताब्दी की 'रानी की वाव' को पहचान प्रदान किए जाने से एक नया प्रोत्साहन प्राप्त हुआ। भारत का प्रतिनिधित्व सचिव (संस्कृति) के नेतृत्व में एक महत्वपूर्ण शिष्टमंडल द्वारा किया गया जिसमें यूनेस्को में हमारे राजदूत / स्थायी
प्रतिनिधि रूचिरा खंबोज भी शामिल थीं। समिति ने यह माना कि यह भूजल संसाधनों का उपयोग करने में प्रौद्योगिकी विकास का एक असाधारण उदाहरण एवं एक अनोखा जल प्रबंधन सिस्टम है जो आर्दश सौंदर्यपरक अनुपातों का अनुसरण करते हुए छोटे-छोटे टुकड़ों में बड़े स्थानों को तोड़ने
की असाधारण क्षमता को दर्शाता है। गुजरात में स्थित यह संपत्ति सरस्वती नदी के ओझल हो जाने के पश्चात लगभग सात शताब्दी तक गाद की परतों के तहत दब गई थी। इसकी खुदाई ने सात पल के सजावटी पैनलों के साथ संरक्षण की असाधारण अवस्था को प्रदर्शित किया जो मारू - गुरजारा
शैली की ऊंचाई का प्रतिनिधित्व करता है।
जल संरक्षण की पुरानी पद्धतियों को विश्व विरासत समिति द्वारा शुष्क एवं निर्जन क्षेत्रों में जल संचयन के असाधारण
उदाहरणों को पृथक किया है जिनका सामुदायिक प्रबंधन तथा आम जनता की भागीदारी के माध्यम से ऐसे विश्व में कारगर ढंग से उपयोग किया जा सकता है जो पानी की गंभीर कमी से जूझ रहा है। रानी की वाव भारत में 31वीं विश्व विरासत साइट है तथा भारतीय उप-भूभागी वास्तुशिल्पीय
संरचना की अनोखी किस्म का प्रतिनिधित्व करती है जो भारत में ऐसे स्टेपवेल के उद्भव का चरमोत्कर्ष था।
संभावित नई भारतीय विश्व विरासत साइटें : प्रोजेक्ट मौसम
प्रतिष्ठित विश्व विरासत समिति जो वैश्विक स्तर पर विश्व विरासत साइटों के संरक्षण एवं परिरक्षण पर नजर रखती है,
के सक्रिय सदस्य के रूप में भारत यूनेस्को एवं अंतर्राष्ट्रीय सलाहकार संस्थाओं के साथ घनिष्ट सहयोग में काम कर रहा है जिसमें आई सी ओ एम ओ एस (अंतर्राष्ट्रीय स्मारक एवं स्थल परिषद), आई यू सी एन (प्रकृति एवं प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के लिए अंतर्राष्ट्रीय
संघ) एवं आई सी सी आर ओ एम (सांस्कृतिक संपत्तियों के संरक्षण एवं परिरक्षण के अध्ययन के लिए अंतर्राष्ट्रीय केंद्र) शामिल हैं। तथापि, हमारी सांस्कृतिक साइट एवं प्राकृतिक स्थलों की पहचान के बीच असंतुलन है क्योंकि भारत में 31 विश्व विरासत संपत्तियों में
से 25 सांस्कृतिक संपत्तियां हैं तथा 6 प्राकृतिक संपत्तियां हैं।
विश्व विरासत अभिसमय धीरे - धीरे अपना फोकस सांस्कृतिक स्मारकों से सांस्कृतिक लैंड स्केप, सांस्कृतिक मार्गों एवं रचनात्मक उद्योगों की ओर शिफ्ट कर रहा है। संभवत: इस वजह से परंतु भारत की सांस्कृतिक विरासत एवं सांस्कृतिक लैंड स्केप की प्रचुर संभावना के
कारण भी भारत ने दोहा प्रोजेक्ट मौसम में विश्व विरासत समिति के हाल के सत्र में अंतर्राष्ट्रीय एवं उत्साही श्रोताओं का ध्यान आकृष्ट किया। यदि स्वीकार किया जाता है, तो यह यूनेस्को की विश्व विरासत सूची में यह राष्ट्रपारीय संपत्ति के रूप में हिंद महासागर
में एक समुद्री सांस्कृतिक लैंड स्केप होगा। प्रोजेक्ट मौसम स्वयं को दो स्तरों पर स्थित करने का प्रयास करेगा : स्थूल स्तर पर जहां यह हिंद महासागर के देशों के बीच संचार को फिर से जोड़ने एवं फिर से स्थापित करने का कार्य करेगा जिससे सांस्कृतिक मूल्यों
एवं सरोकारों की समझ में वृद्धि का मार्ग प्रशस्त होगा; जबकि सूक्ष्म स्तर पर फोकस उनके क्षेत्रीय समुद्री परिदृश्य में राष्ट्रीय संस्कृतियों को समझने पर होगा। इस प्रकार, प्रोजेक्ट मौसम हिंद महासागर में सांस्कृतिक मार्ग एवं समुद्री लैंड स्केप को आपस में
जोड़ेगा तथा तटीय केंद्रों को उनके मुख्य भाग से भी जोड़ेगा। इस प्रकार यह हिंद महासागर में संस्कृति एवं सभ्यता के प्रसार में योगदान करेगा।
‘मौसम' जो अरबी का ‘माउसिन’ शब्द है, प्राचीन समय में मौसम से संबंधित है जब जहाज को सुरक्षित ढंग से चलाया जा सकता था। हिंद महासागर क्षेत्र के इस विलक्षण पवन सिस्टम में एक नियमित पैटर्न का अनुसरण किया जाता है : मई से सितंबर तक दक्षिण पश्चिम और नवंबर से मार्च
तक उत्तर पूर्व। इस नियमित पैटर्न, जो आगे चलकर मानसूनी हवाएं बन गया, ने हिंद महासागर में लोगों, माल एवं विचारों की आवाजाही में सुविधा प्रदान की जिससे बहु-सांस्कृतिक एवं बहुजातीय अंत:क्रिया एवं आदान - प्रदान संभव हुआ। खास महत्व की बात यह है कि मानसूनी हवा
के ज्ञान से प्राचीन एवं ऐतिहासिक व्यापार, स्थानीय अर्थव्यवस्थाएं, राजनीति एवं सांस्कृतिक पहचान प्रभावित हुई। आज की राष्ट्रीय पहचान तथा हमारे अतीत की धारणाएं इस सदियों पुराने संबंधों से गहन रूप से जुड़ी हुई हैं।
इस प्रकार, प्रोजेक्ट मौसम एक आकर्षक, बहुविषयक राष्ट्रपारीय परियोजना है जो हिंद महासागर के पश्च क्षेत्र में लंबे समय से खोए रिश्तों को फिर से जिंदा करने का प्रयास कर रही है तथा भारत एवं हिंद महासागर के देशों के बीच सहयोग एवं आदान - प्रदान के नए अवसर तैयार
कर रही है। सदस्य देशों की साझेदारी में भारत द्वारा शुरू की गई मौसम परियोजना अफ्रीका, अरब एवं एशियाई विश्व के परिप्रेक्ष्य से विश्व इतिहास के इस महत्वपूर्ण चरण को रिकार्ड करने एवं यादगार बनाने में एक महत्वपूर्ण कदम को समर्थ बनाएगी।
स्पाइस रूट परियोजना
प्राचीन काल से, तीसरी सहस्राब्दी ईसा पूर्व से ही मछुआरे, नाविक और सौदागर हिंद महासागर का प्रयोग यात्रा के लिए
करते थे तथा विश्व की सबसे प्राचीन सभ्यता को अफ्रीका से पूर्वी एशिया तक संबंध के एक जटिल ताने-बाने में जोड़ते थे। जिन वस्तुओं को आदान - प्रदान किया जाता था उनमें रत्न, धातुएं, दवाएं तथा सबसे अधिक महत्वपूर्ण रूप से मसाले शामिल थे। वास्तव में, अक्सर मसालों
को रेसन डी एटर कहा जाता है क्योंकि डच, फ्रांसीसी, पुर्तगाली और अंग्रेज इन बहुमूल्य मसालों की तलाश में दक्षिण भारत के कोरोमोंडल तट तक आते थे, अनिवार्य रूप से भोजन सामग्री के परिरक्षण एवं स्वाद के लिए और अनुष्ठानों में भी इनका प्रयोग होता था। इस वजह से यह
कोस्ट लाइन स्पाइस कोस्ट के रूप में मशहूर हो गई।
भारत सरकार के समर्थन से केरल सरकार की एक महत्वपूर्ण पहल 2000 वर्ष पुराने स्पाइस रूट को बहाल करने के लिए सतत प्रयास करना है। प्राचीन स्पाइस रूट से संबद्ध 31 देशों के साथ केरल द्वारा समुद्री व्यापार संबंध फिर से स्थापित किए जाने के अलावा यह परियोजना इस प्राचीन
समुद्री मार्ग के प्रति आधुनिक यात्रियों में रूचि पैदा करना चाहती है, जो प्राचीन काल में पूरी दुनिया से यात्रियों को भारत लाने के लिए जिम्मेदार था। इससे सांस्कृतिक, ऐतिहासिक एवं पुरातात्विक आदान - प्रदान फिर से जिंदा होंगे तथा दक्षिण भारत में परंतु विशेष
रूप से केरल में पर्यटन को बढ़ावा मिलेगा। जैसा कि ऊपर बताया गया है, पहले ही यह परियोजना अंतर्राष्ट्रीय सलाहकार निकायों का ध्यान आकृष्ट कर चुकी है। इसके अलावा, यह परियोजना उन सरकारों का भी ध्यान आकृष्ट कर रही है जिनके स्पाइस रूट के साथ ऐतिहासिक संबंध रहे
हैं जैसे कि नीदरलैंड, फ्रांस और यूनाइटेड किंगडम।
इस प्रकार, प्रोजेक्ट मौसम के संदर्भ में, भारत यूनेस्कों में एशियाई परिप्रेक्ष्य को हाइलाइट करने के लिए विश्व विरासत को फिर से परिभाषित करने का प्रयास कर रहा है। मौसम परियोजना हिंद महासागर से संबद्ध पत्रकार राज्यों को सांस्कृतिक लैंड स्केप एवं विश्व
विरासत की नई व्याख्याओं को आपस में जोड़ने के लिए प्रोत्साहित करेगी। यह यूनेस्को की गतिविधियों को बढ़ावा देने के लिए एक महत्वपूर्ण मंच प्रदान करेगी तथा वैश्विक स्तर पर विश्व विरासत का संरक्षण करने की आवश्यकता को वैश्विक मान्यता दिलाने की हमारे प्रयास
में राष्ट्रपारीय नामांकनों के महत्व को रेखांकित करेगी।
निश्चायक चिंतन
इस परियोजना के तहत जिन विषयों की छानबीन की जाएगी उनमें अन्य बातों के साथ तीसरी सहस्राब्दी ईसा पूर्व से उपनिवेश काल तक सांस्कृतिक लैंड स्केप के रूप में तटीय वास्तुशिल्प में बदलाव; भूमिगत सांस्कृतिक विरासत; संग्रहालय नेटवर्क के साथ उनके संबंध के साथ समुद्री
संग्रहालय; जलयानों की दुनिया तथा प्राचीन पोत निर्माण यार्ड; तथा स्पाइस रूट परियोजना एवं इससे संबद्ध सांस्कृतिक उत्पाद, अमूर्त सांस्कृति विरासत एवं मौखिक परंपराओं से बिल्कुल भिन्न जिनका यह परियोजना परिरक्षण करेगी। हिंद महासागर की संकल्पना प्रस्तुत करने
वाली मौखिम परंपरा एवं साहित्यिक लेखन को भी यूनेस्को के मेमोरी ऑफ दि वर्ल्ड रजिस्टर में शामिल किया जाएगा। यूनेस्को इस साल विश्व विरासत समिति के समक्ष भारत द्वारा लाई गई इस आकर्षक एवं अनोखी राष्ट्रपारीय परियोजना के शीघ्र विकास की उम्मीद कर रहा है। यूनेस्को
में हमारा स्थायी शिष्टमंडल इन प्रयासों का समन्वय कर रहा है। अन्य महत्वपूर्ण राष्ट्रपारीय नामांकनों में अंतर्राष्ट्रीय इंडेंचर्ड रूट परियोजना, सिल्क रूट तथा करबूसियर के वास्तुशिल्प के रत्न के रूप में चंडीगढ़ के शिलालेख शामिल होंगे।
(लेखक, जो पूर्व राजनयिक हैं, यूनेस्को में भारत की स्थायी प्रतिनिधि (2004 -
2010) थीं। यह लेख विदेश मंत्रालय की वेबसाइट www.mea.gov.in के ''केंद्र बिंदु में’’ खंड के लिए लिखा गया है।)