लेखक : दीपक भोजवानी
स्वतंत्रता के बाद भारत ने अपने से बड़े देशों से सदैव कूटनीतिक संबंध बनाए हैं। 1990 के आर्थिक सुधारों ने हमारी स्थिति को आवश्यक मजबूती प्रदान की। लुक ईस्ट पॉलिसी के समान, निर्भीक कूटनीतिक पहुँच ने उभरती ताकत के रूप में हमारी स्थिति को बल प्रदान किया। अफ्रीका
और अन्य देशों में नए मिशनों एवं कॉन्सुलेटों ने चीन, सउदी अरब, और पुनर्जाग्रत रूस जैसे महत्वपूर्ण देशों के साथ संबंधों को बढ़ाया है और अन्य ने गति प्रदान की है।
प्रधान मंत्री मोदी की सरकार ने इस वर्ष मई में एक कमजोर पड़ रहे अग्रगामी से मशाल थामी। अब तक की दौड़ ने हमें एक और परिमाण कूटनीतिक उछाल की उम्मीद करने के लिए प्रेरित किया है। निश्चित एजेंडा के साथ स्थापित कार्य-व्यवहारों में स्वरूप के स्थान पर सार को प्राथमिकता
दिया जाना निरपवाद है। अब देशों और क्षेत्रों के साथ ऐसे एजेंडा तय करने की चुनौती है जहां हमारे संबंध तुलनात्मक रूप से परेशानी से मुक्त हों परंतु जिनका दुरुपयोग न हो।
लैटिन अमरीका और कैरेबियन (एलएसी) के तैंतीस देश विविधतापूर्ण और जटिल कूटनीतिक चुनौती पेश करते हैं। ऐतिहासिक, सांस्कृतिक/भाषायी, और सामुदायिक संपर्कों, जो भारत लगभग अन्य सभी क्षेत्रों के साथ थोड़े-बहुत पैमाने पर रखता है, के तुलनात्मक अभाव से भौगोलिक दूरी और
जटिल हो जाती है। हम पूर्वी कैरेबियन में भारतीय मूल के समुदायों के साथ संबंधों का पोषण करते हैं। अब हमें लैटिन अमरीका पर ध्यान देने की जरूरत है जो भारत से आकार में पांच गुणा बड़ा है, और जहां के 600 मिलियन निवासियों की प्रतिव्यक्ति आय 11,000 अमरीकी डॉलर से
अधिक है। चुनिंदा भारतीयों को ही इस क्षेत्र में ऊर्जा, खनिज, कृषि योग्य भूमि और जैव-विविधता का भारी संसाधन आधार होने के बारे में जानकारी है।
पण्डित नेहरू ने 1961 में मैक्सिको की यात्रा की थी। इंदिरा गांधी की 1968 में आठ लेटिन अमेरिकी देशों की लंबी यात्रा उस क्षेत्र के साथ भारतीय राजनय का उत्कृष्ट उच्च बिंदु है। इस क्षेत्र में बाद में हुई कुछेक प्रधान मंत्री स्तरीय यात्राएं प्रमुखत: बहुपक्षीय
कार्यक्रमों के लिए हुई हैं। अभी हाल ही में, भारतीय राष्ट्रपतियों और उप राष्ट्रपतियों द्वारा लैटिन अमरीका की कुछ यात्राएं की गई हैं।
प्रधान मंत्री मोदी ने विगत जुलाई में ब्रिक्स शिखर सम्मेलन के लिए ब्राजील का दौरा किया। उन्होंने ब्राजील के राष्ट्रपति के साथ द्विपक्षीय वार्ता की थी, परंतु संभवत: उन्हें अतिथियों के रूप में आमंत्रित अन्य सभी ग्यारह दक्षिण अमेरिकी देशों के नेताओं के साथ
व्यक्तिगत रूप से बैठक करने का अवसर नहीं मिला। कुछ भी हो, वे भारत में लैटिन अमरीका और कैरेबियन के मिशन प्रमुखों के साथ दो बार बैठक करना नहीं भूले। अब विदेश मंत्रालय में एक विशेष सचिव लगभग अनन्य रूप से लैटिन अमरीका और कैरेबियन के मामलों को देख रहे हैं।
फोर्टालेजा, ब्राजील में 6ठी ब्रिक्स शिखर वार्ता में ब्रिक्स नेता (15 जुलाई,
2014)
हमारी आजादी के बाद के प्रथम पांच दशकों में, केवल तेरह बार लेटिन अमेरिकी देशों के राष्ट्रपतियों ने भारत का दौरा किया (लेटिन अमेरिकी राष्ट्रपति राज्य और सरकार के प्रमुख होते हैं)। पिछले दशक में दर्जनों यात्राएं हो चुकी हैं। अन्य अनेक अनुरोधों को स्पष्टत:
समय की कमी के कारण स्वीकार नहीं किया जा सका।
चिली, वेनेजुएला और क्यूबा के तीन विदेश मंत्रियों, जो नवगठित ‘कम्यूनिटी ऑफ लेटिन अमेरिकन एंड कैरीबियन स्टेट्स (सेलेक)’ के प्रतिनिधि हैं, ने अगस्त 2012 में विदेश मंत्री से मुलाकात की थी। संयुक्त घोषणा से इस पैन-रीजनल संगठन, जो सभी तैंतीस देशों को एक ही छत्र
के अंतर्गत लाता है, के साथ हमारे संबंधों की नई शुरूआत का भरोसा मिलता है। इस वर्ष फरवरी में, भारत को डायनामिक पेसिफिक अलायंस, जिसमें मैक्सिको, कोलंबिया, पेरू और चिली शामिल हैं, के साथ ऑब्जर्वर का दर्जा प्राप्त हुआ है। विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने सितम्बर
में न्यूयॉर्क में सेलेक के प्रतिनिधि चार विदेश मंत्रियों के समूह के साथ बैठक की। आने वाले दिनों में, वे दिल्ली में ग्वाटेमाला और मैक्सिको के विदेश मंत्रियों का स्वागत करेंगी।
तत्कालीन विदेश राज्य मंत्री श्री ई. अहमद और चिली, वेनेजुएला के विदेश मंत्रियों
तथा क्यूबा के उप विदेश मंत्री के साथ तत्कालीन विदेश मंत्री नई दिल्ली में प्रथम सेलेक मिनिस्टरिल त्रोइका बैठक में (7 अगस्त, 2012)।
जबकि राजनीतिक हित के बारे में इस बात में कोई संदेह नहीं है कि भारत का दर्जा बढ़ा है, आर्थिक रूप से देदीप्यमान और स्वावलंबी लैटिन अमरीका भी दुनिया में पहुंच बना रहा है, मुख्य रूप से चीन और रूस में। राष्ट्रपति शी जिनचिंग और राष्ट्रपति पुतिन ने ब्रिक्स शिखर
वार्ता के पहले और बाद में इस क्षेत्र के तीन अन्य देशों में से प्रत्येक का दौरा किया। चीन के विदेश मंत्री का सेलेक क्वार्टेट के साथ संवाद को शिखर वार्ता स्तर पर ले जाया जा रहा है। चीन, रूस और वृद्धिमान रूप से जापान, दक्षिण कोरिया और आसियान समूचे लैटिन अमरीका
क्षेत्र में भारी निवेश कर रहे हैं। वे इस क्षेत्र को इतनी उच्च प्राथमिकता क्यों दे रहे हैं? भारत का अपना अनुभव इसका जवाब है।
इस शताब्दी में भारत का लैटिन अमरीका और कैरेबियन के साथ व्यापार बहुत अधिक बढ़ गया है, जो 2000-01 में 2 बिलियन अमरीकी डॉलर था और 2013-14 में लगभग 46 बिलियन डॉलर हो गया है। भारत ने लगभग 33 बिलियन डॉलर का आयात किया है और लगभग 13 बिलियन डॉलर का निर्यात किया है।
हमारे आयातों में अधिकांशत: कच्चा तेल, खनिज पदार्थ और खाद्य तेल शामिल हैं। आज के हमारे कच्चे तेल के आयात का लगभग बीस प्रतिशत आयात पांच लेटिन अमेरिकी देशों से होता है। इन अर्थव्यवस्थाओं के धीरे-धीरे खुलने से विदेशी निवेशकों द्वारा भागीदारी को आमंत्रण मिलता
है। चीन ने यही मॉडल अपनाया है। ओएनजीसी, रिलायंस, बीपीसीएल, वीडियोकॉन, श्री रेणुका शुगर्स, बिरला और अन्य जैसी भारतीय कंपनियों द्वारा भी इस मॉडल को अपनाया जा रहा है।
हाल की अस्थिरता के बावजूद, लैटिन अमरीका को भारत का निर्यात एक ठोस दर पर बढ़ा है। भारतीय औषधि, वस्त्र, रासायनिक, मशीनरी और अन्य वैल्यू एडेड उत्पादों को इस पूरे क्षेत्र में अपने उपभोक्ता मिल गए हैं। भारतीय कंपनियों--यूपीएल, गोदरेज, हीरो और अन्य--ने स्थानीय
कंपनियों को खरीद लिया है अथवा ग्रीनफील्ड परियोजनाओं में निवेश किया है। दर्जन से अधिक भारतीय सॉफ्टवेयर कंपनियों ने पूरे लैटिन अमरीका में विकास एवं डिलीवरी केंद्रों में कुछ दर्जन से लेकर कई हजार तक सॉफ्टवेयर व्यावसायिकों को नियोजित किया है। लगातार असुरक्षित
होते जा रहे और अस्थिर अंतरराष्ट्रीय वातावरण में, लैटिन अमरीका हमारे ईंधन एवं कच्चे माल की आवश्यकताओं के लिए एक जरूरी वैकल्पिक स्रोत एवं हमारे सामान एवं सेवाओं के वैल्यू ऐडेड निर्यात के लिए नए बाजार प्रदान करता है।
इसने नए विशेषाधिकार व्यापार करारों पर बातचीत करने पर विचार करने, एवं मौजूदा करारों को गहनता प्रदान करने के लिए दोनों पक्षों के संस्थापनों का पर्याप्त ध्यान नहीं गया है। यदि हम ब्राजील, चिली, पेरू, कोलंबिया और अन्य अनेक क्षमतावान बाजारों में हमारे निर्यातकों
को संवर्धित पहुँच प्रदान करें, तो लैटिन अमरीका में भारत की भौगोलिक एवं अन्य कठिनाइयों को आंशिक रूप से दूर किया जा सकता है। फिलहाल हमारा निर्यात लैटिन अमरीका के कुल निर्यातों के दो प्रतिशत से भी कम है। वायु और समुद्री मार्ग से अपर्याप्त संपर्क भी व्यापार
को प्रभावित करते हैं। हमें पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए बेहतर कनेक्टिविटी सुनिश्चित करने की जरूरत है। एक सक्रिय भारत-लेटिन समुदाय द्वारा प्रसारित की जा रही एक दूसरे की संस्कृतियों को जानने और अनुभूत करने की भी जरूरत है।
लगभग 20 बिलियन डॉलर का भारतीय निवेश अफ्रीका की तुलना में लैटिन अमरीका के लिए धीमा रहा है। इसका कारण दूरी, भाषायी बाधाएं, साझा इतिहास और परिचय का अभाव हो सकता है। तथापि, अफ्रीका के साथ हमारी भागीदारी में आधिकारिक तौर पर और संरक्षणीय तौर पर बहुत ध्यान दिया जाना
होगा। भारत 2015 में तीसरी भारत-अफ्रीका शिखर वार्ता की मेजबानी करेगा। लैटिन अमरीका के साथ कोई संयुक्त शिखर वार्ता की संभावना दूर-दूर तक दिखाई नहीं देती। भारत ने अफ्रीका को 8.5 बिलियन डॉलर की परियोजनागत और संबंधित सहायता देने की वचनबद्धता की है, जिसमें से पैंसठ
प्रतिशत संवितरित की जा चुकी है। इसके विपरीत, लैटिन अमरीका के साथ हमारी विकास भागीदारी अभी तक 200 मिलियन डॉलर से भी कम है। इसमें से अधिकांश भागीदारी भारतीय उत्पादों की खरीद के लिए प्रत्यक्ष नकद दान अथवा ऋण के रूप में हुई है। भारतीय कंपनियों के पास लैटिन अमरीका
में परियोजनाओं को निष्पादित करने का चीन की कंपनियों की तरह का अनुभव नहीं है।
इस सप्ताह, अनेक लेटिन अमेरिकी शिष्टमंडल, जिनमें से कुछ का नेतृत्व मंत्री करेंगे, फिक्की द्वारा आयोजित भारत-लैटिन अमरीका निवेश कॉन्क्लेव के लिए दिल्ली में आएंगे। व्यापार और निवेश में पारस्परिक हितों पर अब आधिकारिक रूप से ध्यान दिया जाने लगा है।
राजनीतिक परिवर्तन निश्चित रूप से होने वाले हैं। दोनों पक्षों पर संस्थाओं एवं कंपनियों की पारस्परिक उपस्थिति, संयुक्त उपक्रम, द्विपक्षीय यात्राओं के एक सुसंगठित कैलेंडर पर समय पर एवं केंद्रित रूप से ध्यान देने से भारत का एक अपेक्षाकृत उच्च प्रोफाइल प्राप्त
करना सुनिश्चित होगा। हम इब्सा और ब्रिक्स में ब्राजील के साथ भागीदारी करते हैं। हम जी20 में ब्राजील, मैक्सिको और अर्जेंटीना के साथ तथा जलवायु परिवर्तन वार्ताओं, विश्व व्यापार संगठन आदि में विभिन्न समान विचारधारा वाले लेटिन अमेरिकी और कैरेबियनई देशों
के साथ मंच साझा करते हैं। ये संपर्क और भारत में निवेश कर रही लेटिन अमरीकी कंपनियों की लॉबियां इस क्षेत्र में भारत के आधार को मजबूत करेंगे।
लैटिन अमरीका के साथ राजनीतिक असहमति के अभाव से यह क्षेत्र सकारात्मक भागीदारी के लिए खुल जाता है। हम जो सेतु बनाते हैं वे उस क्षेत्र में भारतीय व्यवसायों और अन्य हितों को अधिक सहजता से वहां जाने और काम करने के लिए प्रेरित करेंगे और सक्षम बनाएंगे। लैटिन अमरीका
और कैरीबियन क्षेत्र को द्विपक्षीय रूप से, सामूहिक रूप से और संगठित रूप से सभी स्तरों पर सहयोजित करने की आवश्यकता दिखई पड़ती है, जैसाकि हमने अफ्रीका और दक्षिण पूर्व एशिया के साथ किया है।
(ऊपर अभिव्यक्त विचार लेखक के अपने व्यक्तिगत विचार हैं)
[लेखक पूर्व राजनयिक हैं तथा कोलंबिया और क्यूबा में भारत के राजदूत रहे हैं। यह लेख अनन्य रूप से विदेश मंत्रालय की वेबसाइटwww.mea.gov.in के ‘केंद्र बिंदु में’ खण्ड के लिए लिखा गया है।]