1. अध्यक्ष मोहम्मद नशीद, सुरेश प्रभु जी, सर्बानंद सोनोवाल जी, राम माधव जी, हालांकि वो अभी मौजूद नहीं हैं, शौर्य दोवल जी, आलोक बंसल जी, प्रिय मित्रों।
2. आम तौर पर एक अतिथि अपना स्वागत स्वीकार करता है, लेकिन आज मैं गुजरात का एक सांसद होने के नाते एक असामान्य स्थिति में हूं और नर्मदा के प्रति विशेष लगाव के साथ, आप सभी का केवड़िया में स्वागत करता हूँ। मैं इस सम्मेलन को यहाँ आयोजित होते हुए देखकर वास्तव में
बहुत प्रसन्न हूं। मुझे उम्मीद है कि आप सभी यहाँ आते रहेंगे, दूसरे लोगों को अपने साथ लाएंगे। केवड़िया में कुछ समय बिताएंगे, स्टैच्यू ऑफ यूनिटी देखेंगे, इसके आस-पास बनी अन्य सभी अद्भुत चीजों को देखेंगे और केवड़िया के स्टैच्यू ऑफ यूनिटी का संदेश पूरे भारत और दुनिया
के बाकी हिस्सों में पहुंचाएंगे।
3. "नव भारत: जड़ों को अपनाना, ऊंचाइयों को छूना” के विषय पर 6 ठे भारत विचार संगोष्ठी को संबोधित करते हुए मुझे बहुत ख़ुशी हो रही है। इस संगोष्ठी ने समकालीन मुद्दों पर चर्चा करने हेतु एक मंच के रूप में पिछले कुछ वर्षों में बहुत ही प्रतिष्ठा प्राप्त की है। और मंच
पर इतने सारे सितारों की उपस्थिति और इतनी सारी प्रतिभाओं की मौजूदगी, इस तथ्य की गवाही देती है कि यह वास्तव में एक बहुत ही सफल मंच रहा है।
4. अभी हम बेशक दिलचस्प समय में रहते हैं और आज अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में संलग्न होने वाला कोई भी व्यक्ति पूर्वनुमेयता की शिकायत नहीं करेगा। वास्तव में, हमने इतने सारे काले हंस और भूरे गैंडे देखे हैं कि प्राकृतिक वास इतना बदल गया है कि उसे पहचाना भी नहीं जा
सकता। लेकिन उस प्रक्रिया में, इससे राष्ट्रवाद, पहचान और वैश्वीकरण के कुछ बुनियादी मुद्दे छूट गए हैं, जिनपर बुद्धिजीवीयों द्वारा निष्पक्ष रूप से बहस करने की आवश्यकता है। हालाँकि, ये वाद-विवाद और राजनीतिक हमलों के लिए सबसे प्रत्यक्ष विषय हैं, क्योंकि ये जाहिर
तौर पर बेहतर समझ में योगदान नहीं करते हैं। इसलिए, यह बहुत उपयोगी है कि हम सभ्यताओं के संवाद के एक बड़े चित्रफलक की पृष्ठभूमि पर इन मामलों पर विचार कर रहे हैं। ऐसा करके, हम परंपरा, संस्कृति और विश्वास के महत्व को वैश्विक मामलों में मुख्य चर के रूप में सही तरह
से पहचान रहे हैं। मुझे ईमानदारी से कहना चाहिए कि यह अपने आप में अधिक विस्तृत और कम खुरदरा विकास है, जो वैश्वीकरण के आधार तत्व को झुकाता है।
5. राष्ट्रवाद का उदय हमारे वर्तमान युग को परिभाषित करने वाली विशेषताओं में से एक है। इसने विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों में कई अलग-अलग रूपों में अपने-आप को प्रकट किया है, जिनमें से कई क्षेत्रों में प्रत्यक्ष रूप से लोकतांत्र को मान्यता प्राप्त है। अधिक स्पष्ट उदाहरणों
में संयुक्त राज्य अमेरिका में राजनैतिक मोड़, वैश्विक परिदृश्य में चीन का उदय, ब्रेक्सिट प्रक्रिया, यूरोप पर इसका प्रभाव और महान शक्तियों की राजनीति के क्षेत्र में रूस की वापसी शामिल है। ये भूराजनीति के नजरिए से अधिक प्रभावशाली मामले हो सकते हैं, लेकिन ऐसे कई
अन्य मामले भी हैं जो कई सारे अन्य समाजों में गहरे राजनीतिक परिवर्तन की गवाही देते हैं। वे जापान से लेकर ब्राजील और तुर्की से लेकर फिलीपींस में नज़र आते हैं और हर मामला ज़ाहिर तौर पर एक-दूसरे से बहुत अलग है। फिर भी, ये पहले की सर्वसम्मति से प्रस्थान को लेकर आम
सोच रखते हैं। हम, भारत में, अपने आप को सबसे अनोखा और सच्चा मानते हैं, क्योंकि हमारा विश्व दृष्टिकोण अब अधिक वैश्विक बना है, कम नहीं हुआ है। जलवायु परिवर्तन, कट्टरता, आतंकवाद का मुकाबला, कनेक्टिविटी, समुद्री सुरक्षा, महामारी जैसे प्रमुख वैश्विक मुद्दों पर,
हमारे योगदान से फर्क पड़ा है। लेकिन अन्य लोग ये सोच सकते हैं कि हम भी इस प्रवृत्ति से जुड़े हैं। इसलिए, यह सवाल करना उचित होगा कि यह सब किस लिए है। और यह दुनिया में इतनी तेजी से क्यों फैला है। इसका सही उत्तर देने के लिए, यह आवश्यक है कि हम सर्वप्रथम इस बात की
समझें कि सभी राष्ट्रवादियों को एक ही रंग में रंगना राष्ट्रवादियों की सोच नहीं है। इसके विपरीत, यह वैश्विकतावादियों की रणनीति है जो दुनिया को एक लाभप्रद द्विआधारी प्रस्ताव के रूप में सरल बनाना चाहते हैं। ऐसा करके, वे एक बहुत ही अलग राजनीतिक परिघटनाओं - कुछ
हठ धर्मी, जबकि कुछ अधिक प्रतिक्रियाशील और बाकी केवल सरल मार्मिक – को एक ही टोकरी में लाते हैं। ऐसा करने से इसे समझाना बहुत आसान बन जाता है। और जैसा कि हमने अक्सर पाया है, शैतान बनाना भी आसान बन जाता है।
6. जाहिर है कि वास्तविकता इससे बिल्कुल अलग है। हमारे पास संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे समाज हैं जिनका राष्ट्रवाद शाही अतिवृद्धि के साथ-साथ वैश्वीकृत अर्थव्यवस्था और उदारवादी प्रवास के खिलाफ एक संदेश है। इसके विपरीत यूके, प्रवासन के प्रति असुरक्षा का एक बहुत अधिक
एकल-केन्द्रित मामला है। शायद कुछ अन्य यूरोपीय राज्यों को भी प्रवासन का डर है। लेकिन जैसा कि हमने चीन या रूस में देखा है, राष्ट्रवाद को रक्षात्मक बनने की आवश्यकता नहीं है। यह वैश्विक मामलों में अधिक भूमिका या कई वर्षों से दबाव में रहने के बाद अपने प्रभुत्व
की बहाली का दावा कर सकता है। खासकर पश्चिम एशिया में, विश्वास और पहचान, इस परिघटना के शक्तिशाली संचालक रहे हैं। लेकिन दुनिया के बड़े हिस्सों के लिए, राष्ट्रवाद अपनी जड़ों की खोज और अपनी स्वतंत्रता का दावा करने की एक पूरी तरह से प्राकृतिक अभिव्यक्ति है। यह उस
अर्थ में, लोकतांत्रिककरण की सफलता के प्रति एक श्रद्धांजलि है जो सत्ता को नामित कुलीनों के हाथों के परे ले गई है। और इस बहस के सम्मुख कुलीन वैश्विकता हमारे समय का सबसे सक्रिय संवाद बना है।
7. चूंकि पश्चिमी देशों के बाहर राष्ट्रवाद का एक बड़ा हिस्सा उभरा है, इसलिए इसके पुनर्संतुलन के लिए अनिवार्य रूप से एक सभ्यतागत पहलू भी मौजूद है। आखिरकार, इसका अर्थ है उन समाजों का राजनीतिक पुनरुद्धार, जो सदियों से नहीं तो दशकों से पश्चिम का शिकार रहे थे। वैश्विक
मंच पर फिर से उभरने वाले कुछ खिलाड़ियों की एक ऐसी संस्कृति और विरासत रही है जो स्वाभाविक रूप से उन्हें अपने ऐतिहासिक व्यक्तित्व को अच्छी तरह से पेश करने में मदद करता है। अगर, चीन की तरह, वे भी ‘सदियों के अपमान’ से प्रेरित हैं, तो यह प्रक्रिया और भी अधिक रक्तमय
होगी। सादृश्य और भाषा की अधिक स्पष्ट अभिव्यक्तियाँ सांस्कृतिक असंतुलन का पहला संकेत है। लेकिन वास्तविक परिवर्तन भी अब दुनिया की नज़र से छुपा नहीं है। नई संस्थाएं, विभिन्न प्रथाएं और बदली हुई मानसिकता बहुत ही अलग आर्थिक वास्तविकता की नींव पर निर्माण करते हैं।
चाहे वह ब्रिक्स हो, एशियन इन्फ्रास्ट्रक्चर इन्वेस्टमेंट बैंक या अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस हो, ये सभी बदलते समय के संकेत हैं। एक दशक पहले G-20 द्वारा G-7 का अधिक्रमण इस संदेश को रेखांकित करता है। लेकिन यह परिवर्तन केवल पश्चिम और बाकी की दुनिया के बीच ही नहीं
हुआ है। बल्कि आज पश्चिमी दुनिया खुद अमेरिकी राष्ट्रवाद की वजह से गहराई से विभाजित है। एक हालिया सम्मेलन में, वास्तव में म्यूनिख का सम्मेलन पश्चिमी सभ्यता की अवधारणा में इसकी निम्न महत्व वाली अभिव्यक्ति के संबंध में था। इस बात को ध्यान में रखते हुए, शायद आज
ऐसा मामला बना है कि हम सभ्यताओं की कट्टरता की सीमा से आगे बढ़कर एक नई राजनीतिक समझ तक पहुँच सकते हैं। पश्चिम से परे एक बड़ी लोकतांत्रिक दुनिया मौजूद है, एक ऐसी दुनिया जो लोकतंत्र और बहुलवाद को अधिक सार्वभौमिक अर्थ देती है। लेकिन इसके लिए वर्तमान स्थिति में
खुद की एहमियत महसूस कराने के लिए, विचारों की शक्ति और विश्वासों की ताकत को इतिहास के पूर्वाग्रहों से अधिक मजबूत होनी चाहिए। क्या इस तरह का अभिसरण पेचीदा रूपरेखाओं को अधिभूत कर सकता है – यह अब भी एक खुला सवाल बना हुआ है। भारत के पास इसके उत्तर की कुंजी है।
8. एक संबद्ध बहस बहुपक्षवाद का एक भविष्य है। कई दशकों से, संस्थानों और प्रथाओं का एक जटिल जाल स्थापित किया गया था जो मानव गतिविधि के अधिकांश पहलुओं को नियंत्रित करता है। आश्चर्य नहीं कि ये हावी पश्चिम के हितों को प्रतिबिंबित करता है और इसलिए सभ्यतागत परिवर्तनों
से प्रभावित होता है जैसा कि मैंने बताया है। लेकिन बड़ी शक्तियों के संकीर्ण राष्ट्रवाद का भी एक प्रभाव रहा है जो नियमों से नहीं बंधना चाहते हैं। यह दृष्टिकोण की कुछ लोगों के लाभ के लिए वैश्विक संस्थानों और शासनों के साथ खेला जा सकता है, ने निराशावाद को बढ़ाया
है। हमने यह व्यापार और प्रौद्योगिकी से लेकर क्षेत्रीयता और सुरक्षा तक के कई मुद्दों में देखा है। लेकिन यह सिर्फ उन राज्यों का आचरण नहीं है जिसने वैश्विक व्यवस्था की स्थिरता को घटाया है। प्रमुख संस्थाएँ - विशेष रूप से संयुक्त राष्ट्र – स्पष्ट रूप से कालभ्रमित
है। उनकी सोच और निर्णय स्पष्ट रूप से आधुनिक वास्तविकता परिलक्षित नहीं करती है। यह भी स्पष्ट है कि अंतर्राष्ट्रीय समुदाय का एक बहुत बड़ा हिस्सा परिवर्तन के पक्ष में है। संशोधित बहुपक्षवाद का मामला केवल मजबूत नहीं है; बल्कि इसके बिना, बहुपक्षवाद खुद खतरे में
पड़ सकता है। इसलिए यह अनिवार्य है कि हम अतीत की प्रथाओं के साथ-साथ कुछ लोगों के निहित हित से निकल कर आगे बढ़ें। जब बात बहुपक्षवाद की आती है तो नियम आधारित व्यवस्था के सम्मान को खत्म किए बिना, परिवर्तन के सकारात्मक तत्वों को पहचानना और उन्हें समायोजित करना
एक बड़ी चुनौती है।
9. वैश्वीकरण से नाराज़गी मुख्य रूप से इस बात को लेकर है कि कई समाजों में लोगों के जीवन की गुणवत्ता ठहरी रह गई है। ये अक्सर सामाजिक असुरक्षा, आमदनी में बहुत ज्यादा अंतर और प्रौद्योगिकी के परिणामों के कारण और भी बिगड़ा है। लेकिन विभिन्न भौगोलिकी में कई अन्य घटक
भी प्रभाव डालते हैं, जिनमें से कई स्व-परिवर्तन के खिलाफ हैं। यथा स्थिति दिन की सर्वसम्मति के लिए पर्याप्त है। और यह स्पष्ट रूप से विश्व की साझा दृष्टिकोण ‘हमारे जैसे लोग’ पर काफी हद तक आधारित है। हमारे जैसे लोग हमारे जैसे लोग नहीं हैं बल्कि ‘यूएस’ जैसे लोग
हैं। तो, जब सरकारें और समाज एक सिद्ध कायदे से अपने कदम पीछे लेती हैं, तब उनके कृत्यों को कड़ी चुनौती से गुजरना पड़ता है। विरोधाभास तब उभरता है जहाँ उदारतावादी लोग रूढ़िवादी लोगों की तुलना में बदलाव लाने से ज्यादा डरते हैं। हमने हाल के समय में अपने ही समाजों में
इसके कुछ बड़े उदाहरण देखें हैं। ये केवल राजनीतिक और सुरक्षा मुद्दों के संबंध में’ ही नहीं हैं, बल्कि सामाजिक और विकास लक्ष्यों के संबंध में भी है। किसी न किसी तरह, नैतिकता का बोध अपरिवर्तन के लिए उत्तरदायी है। इसके विपरीत, लम्बे समय से चलती आ रही शासन समस्याओं
को बदतर नहीं तो भी जोखिमी दिखाया जाता है। शायद आपको इस बात को दूसरों से ज्यादा समझना चाहिए कि ऐसे कई उदाहरण असल तौर पर हमारे अपने चरित्र, परम्पराओं और हितों का प्रतिनिधित्व करते हैं।
10. आज की दुनिया के अधिकतर तर्क विचारों के रूढ़िवाद और उसके त्याग के इर्द-गिर्द घूमते हैं। सुंदरता की ही तरह, सच्चाई भी देखने वाले के आँखों में होती है या सही-सही कहें तो निर्णय लेने वाले के मन में होती है। और यहीं वो जगह है जहाँ वैश्विकता की शक्ति सबसे स्पष्ट
नज़र आती है। विभिन्न प्रकार के माध्यम और संस्थान, अक्सर अघोषित हित वाले, निर्णय पारित करते हैं और मानक निर्धारित करते हैं। ये अपने-आप को राजनीतिक सच्चाई का विवाचक मानते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि उनका निर्णय ऐसे उच्च कोटि का है कि वे अपने फैसलों को लोकतंत्र
के फैसले और विधान की इच्छाओं से भी महान मानते हैं। इस तरह के राय अक्सर उसी तरह के अन्य लोगों की तुलना में खुद को प्रबल दिखाने के लिए प्रकट किए जाते हैं जिससे उनकी साख बढ़े। और ऐसा करने में माहिर लोग निष्पक्षता के बड़े-बड़े दावे करते हुए ऐसा करते हैं। इस प्रथा
में, पश्चिमी सभ्यता की लड़ी, वैश्विकता, जो एक प्रकार का बहुपक्षवाद और उदारतावाद है, अक्सर बड़ी ही मजबूती से आपस में उलझे होते हैं। सच्चाई ये है कि हर किसी – मीडिया, थिंक-टैंक, अपने-आप को लोकपाल मनाने वाले लोग – के पास लड़ने के लिए एक हथियार है। लेकिन आज की चुनौती
इसे साफ-साफ बयान करने के लिए हिम्मत जुटाना है।
11. तो यह सब भारत को कहाँ लाकर खड़ा करता है? सबसे पहले, यह आज बस एक राजतंत्र है जो यह बताता है कि लोकतंत्र के असल प्रसार से हम अपने जड़ों, विरासत और परंपरा की खोज कर सकेंगे। इसकी बढ़ती क्षमता और प्रभाव स्पष्ट रूप से वैश्विक असंतुलन को सही करेगा और बहुध्रुवीयता
का फैसला करेगा। वैश्विक मंच पर वापसी करते एक सभ्यतागत शक्ति होने के नाते, यह एक अलग वैश्विक संस्कृति का संतुलन बनाएगा। एक पश्च-उपनिवेशी समाज होने के नाते, यह हमेशा वैश्विक दक्षिण के साथ खड़ा रहेगा और रहना भी चाहिए। एक राजनीतिक लोकतंत्र, बाजार अर्थव्यवस्था और
बहुलवादी समाज होने के नाते, पश्चिम के साथ इसकी समझ उनके संबंधित क्षमताओं को पुनर्परिभाषित कर सकते हैं। संशोधित बहुपक्षवाद का वक्ता होने के नाते, वैश्विक संस्थानों को प्रभावित करने की इसकी क्षमता निश्चित रूप से विश्व मामलों को प्रभावित करेगा। लेकिन इन सभी में
और आगे भी, भारत को अपना एक खास भारतीय तरीका दिखाना होगा, एक ऐसा तरीका जो घर की याद दिलाए, दुनिया को अपनाए, अपना पूरा योगदान दे और बड़ी ही सहजता से प्रकट करे कि यहाँ के लोग वास्तव में कैसे हैं। कि दुनिया को इसकी सफलता से बहुत ज्यादा फायदा हो सकता है।
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