लेखक : पल्लव बागला
मंगल ग्रह के लिए भारत के पहले ही मिशन की सफलता को एक वैश्विक उपलब्धि के रूप में देखा जा रहा है क्योंकि इससे सस्ता एवं विश्वसनीय अंतर-ग्रहीय यात्रा का मार्ग प्रशस्त हो गया है, जो इस देश द्वारा प्रयुक्त सुदृढ़ उच्च कोटि की प्रौद्योगिकीय अवसंरचना के बदौलत
ही संभव हो पाया है। यह बात परमाणु सेक्टर के मामले में भी सही है जहां भारत के पराक्रम को धीरे-धीरे इतना अधिक महत्व मिल रहा है कि विश्व के एकमात्र फ्यूजन एनर्जी रिएक्टर का निर्माण फ्रांस में किया जा रहा है, जिसका भारत एक पूर्ण सदस्य है। फिलहाल, देश का मंगल
ग्रह की कक्षा की ओर मिशन (MOM) निश्चित रूप से ‘मेक इन इंडिया’ अभियान का परिचायक है।
29 दिसंबर, 2014 को ‘मेक इन इंडिया’ (MOM) की कार्यशाला में बोलते हुए, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी ने कहा, ''मानव संसाधन विकास,
नवाचार तथा अनुसंधान’’ सरकार के हर प्रयास का अभिन्न अंग होने चाहिए। उन्होंने कहा कि इनका प्रयोजन विभिन्न सेक्टरों में राष्ट्र के समग्र लक्ष्यों के अनुरूप ही होना चाहिए।'' मोदी ने भारत के विनिर्माण के सभी सेक्टरों से यह अपील की कि वे ''अंतरिक्ष’’ सेक्टर
की सफलताओं और भारत के अंतरिक्ष वैज्ञानिकों की उपलब्धियों से प्रेरणा लें।
न्यूयार्क के अपने हाल के दोरे पर मोदी द्वारा मंगल ग्रह पर सफलतापूर्वक पहुंचने की बात दोहराने पर वहां उपस्थित अपार भीड़ खुशी से झूम उठी। मोदी जी ने बताया कि मंगलयान के निर्माण में प्रयुक्त सभी वस्तुएं स्वदेशी थीं ...... उनका निर्माण छोटी फैक्टरियों में
किया गया था। हम हॉलीवुड के किसी फिल्म के निर्माण में आने वाली लागत से भी कम लागत पर मंगल पर पहुंचने में सफल रहें।'' उन्होंने यह भी कहा कि ‘भारत विश्व का एकमात्र देश है जो अपने पहले प्रयास में ही मंगल पर पहुंचने में सफल रहा। अगर यह हमारी प्रतिभा का कमाल
नहीं है तो और क्या है?
बहुत कम ही लोग यह जानते हैं कि जन-जन का दुलारा मंगलयान वास्तव में मोदी के ‘मेक इन इंडिया’ अभियान का प्रतीक है जहां मोदी ‘’सेटेलाइट से सबमैरीन’’ के निर्माण हेतु भारत को विकसित करने की दिशा में प्रयासरत है। भारत की क्षमता को संवर्धित करने के प्रति समर्पित वेबसाइट
‘इंडिया इनकॉरपोरेटेड’ ने यह रेखांकित किया कि लगभग 40 उद्योग सीधे तौर पर अंतरिक्ष यान के निर्माण कार्य में स्वत: लगे हुए हैं जिन्हें भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने संयुक्त कर दिया है। अहमदाबाद के सांघवी एयरोस्पेश प्रा0 लि0, जो एल एण्ड टी तथा
गोदरेज जैसी बड़ी कंपनियों को तार एवं केबलों की आपूर्ति करते थे, ऐलेकर राजकोट के टेकनोकॉम जैसे छोटे फर्मों ने मंगलयान के निर्माण में कैमरा की आपूर्ति की जिससे इस एमओएम ने मंगल की पहली तस्वीर ली। वास्तव में ये सभी उस साधारण ‘मेक इन इंडिया’ के लेबल को ही परिलक्षित
करते हैं जो मंगलयान ग्रह धारित किए हुए है।
जब 16000 की दृढ़ इच्छा शक्ति वाले छोटे समुदाय के सुख-दुख का भागीदार बनने के लिए आने पर उन भारतीय अंतरिक्ष वैज्ञानिकों को दिए गए अपने संबोधन भाषण में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा, ''अंतरिक्ष अंतिम सरहद है, इसलिए आगे और आगे बढ़ते जाओ'' जो मंगल ग्रह पर
अपने पहले प्रयास में पहुंच सकने में सफल होने की पूरी जोर लगा रखी थी। वह साहसिक सफलता जो महान अंतरिक्ष शक्तियों जैसे संयुक्त राज्य अमेरिका तथा अमेरिका द्वारा भी प्राप्त नहीं की जा सकी थी। भारत की उपलब्धि का लोहा मानते हुए, नासा के प्रशासक चार्लस बोल्डन
ने एक सराहनीय अभियांत्रिकीय कदम बताया।
अन्य 100 अथवा इतने ही उद्योग रॉकेट के निर्माण कार्य से प्रत्यक्ष रूप से जुड़े हुए हैं जिन्होंने 5 नवम्बर, 2013 को एम ओ एम को अंतरिक्ष में भेजा।
जिस बात ने पूरे विश्व का ध्यान आकर्षित किया वह था इस अद्भुत कार्य में 450 करोड़ या लगभग 75 मिलियन अमरीकी डॉलर की छोटी सी लागत का लगना। यह लागत भारत के मंगलयान पहुंचने के दो दिन बाद मंगल ग्रह पर पहुंचने वाले नासा के अद्यतन मिशन में आने वाली लागत से दस गुना
सस्ती थी। नि:संदेह यह इकसवीं शताब्दी के किसी भी अंतर ग्रहीय मिशन में आने वाली लागत में सबसे कम लागत वाला मिशन था। जैसा कि इसरो के अध्यक्ष के. राधाकृष्णन ने बताया है कि उप-प्रणालियों की ‘’मापांकीयता’’ से लागत में कमी आई तथा परिश्रमिक बिलों की राशि से लागत
में कमी आई तथा पारिश्रमिक बिलों की राशि कम रही। साथ ही, मंगल उपग्रह पर कार्य कर रहे इसरो के 500 कार्मिक बलों की रातों-दिन की मेहनत से इसकी लागत में काफी कमी आई।
30 जून को, मोदी जी ने भारतीय अंतरिक्ष एजेंसी के 114वें भारतीय मिशन के शानदार प्रक्षेपण को पोलर सेटेलाइट लांच वीकल को छोड़ते हुए देखा, जिसने अब तक 19 अलग-अलग देशों से 40 उपग्रहों का प्रक्षेपण किया है। इसरो की वाणिज्यिक शाखा ''द एंट्रिक्स कॉरपोरेशन लिमिटेड’’
का लगभग 15,000 मिलियन का वार्षिक टर्नओवर है और इसे पीएसएलवी का उपयोग करते हुए तीन और समर्पित वाणिज्यिक प्रक्षेपणों के लिए पहले ही क्रमादेश प्राप्त हुए हैं, जो आगामी वर्षों में 14 ओर विदेशी उपग्रहों को कक्षा में स्थापित करेगा। एंट्रिक्स कॉरपोरेशन के अध्यक्ष
एवं प्रबंध निदेशक, वी. एस. हेगड़े ने कहा कि ‘'हम पहले से ही एक मानी हुई शक्ति हैं ओर हम आगे भी निश्चित रूप से प्रगति करते रहेंगे।''
ग्रहों पर पहुंचना ही एक ऐसा क्षेत्र नहीं है जहां भारत के प्रयासों में सफलता मिल रही है, नाभिकीय ऊर्जा का दोहन भी भारत के लिए एक महत्वाकांक्षी सपना है। आज, भारत फ्यूजन ऊर्जा के सृजन में विश्व का सबसे बड़ी विज्ञान परियोजना में सक्रियतापूर्वक अपनी भागीदारी दे
रहा है।
क्या सदाबहार नाभिकीय ऊर्जा एक संभावना है!
उत्तरी फ्रांस में एक तारे का उदय होना निर्धारित है। 20 बिलियन से अधिक अमेरिकी डॉलर की बड़ी लागत से एक अभूतपूर्व नाभिकीय रिएक्टर बनाने हेतु प्रयास किए जा रहे हैं। एक विशेष स्टील भंडार जहां फ्यूजन ऊर्जा का दोहन किया जा सकता है तथा इसे अंतरराष्ट्रीय ताप नाभिकीय
प्रयोगात्मक रिएक्टर (आई टी एफ आर) कहा जाता है। परमाणु ऊर्जा आयोग के अध्यक्ष, रतन कुमार सिन्हा कहते हैं, ''फ्यूजन ऊर्जा में विश्व के लिए पर्यावरण अनुकूल ऊर्जा का असीमित स्रोत बनने की अपार संभावनाएं हैं।''
यह अब तक का आरंभ किया जाने वाला विश्व का सबसे बड़ा वैज्ञानिक परियोजना है और यह फ्रांस में आरंभ हो रही है। यह एक ऐसी विशाल परियोजना
है जिसमें विशेषज्ञों का मानना है कि परमाणुओं का फ्यूजन करके असीमित स्वच्छ नाभिकीय ऊर्जा के सृजन का मार्ग प्रशस्त होगा। यह सूर्य पर घटित होने वाली प्रक्रिया से अधिक भिन्न नहीं होगी।
यह रिएक्टर पेरिस के 3 ईफेल टॉवरों के वजन के बराबर लगभग 23000 टन का भार वहन करेगा। विशेष अतिचालक तारों के लगभग 80,000 किलोमीटर का उपयोग किया जाएगा।
छ: देश नामत: भारत, चीन, दक्षिण कोरिया, संयुक्त राष्ट्र अमेरिका, जापान, रूस तथा यूरोपीय संघों ने समान भागीदार के रूप में कार्य करने का संकल्प लिया है ताकि यह पता लगाया जा सके कि क्या वे सूर्य को स्टील बोतल में सीमित करते हुए उसकी शक्ति का संयुक्त रूप
से उपयोग कर सकते हैं।
बहुत बड़े स्टील के ढांचे में गैस को लगभग 150 मिलियन डिग्री ताप तक गर्म किया जा सकता है और इसे विशालकाय चुम्बकों का उपयोग करते हुए सीमित स्थान में परिरूद्ध किया जा सकता है। इसके पश्चात, कुछ परमाणु आपस में मिलकर बहुत बड़ी मात्रा में ताप उत्पन्न कर सकते
हैं जिसे बिजली पैदा करने हेतु टर्बाइनों के संचालन के काम में लगाया जा सकता है। पहले उदाहरण में, यह आशा की जाती है कि फ्यूजन रिएक्टर 500 मेगावाट शक्ति उत्पन्न के लिए अनुमानित प्रतिक्रिया को आरंभ करने हेतु उपयोग की जाने वाली ऊर्जा से दस गुना अधिक ऊर्जा का
उत्पादन करेगा।
लेकिन कार्य निष्पादित करने की बजाया सिर्फ इसकी परिकल्पना कर लेना आसान है क्योंकि सूर्च की शक्ति को अपने नियंत्रण में करना एक भागीरथ प्रयास है और पिछले पचास वर्षों से वैज्ञानिक सिर्फ इस साहस प्रयास का स्वप्न मात्र ही देख रहे हैं। लेकिन वर्ष 2006 में पहली
बार आई टी एफ आर संगठन अस्तित्व में आया और प्रयास वास्तविकता की ओर अग्रसर हुआ।
भारत की भूमिका
भारत इस उद्यम का पूर्णरूपेण सदस्य है और यह फ्रांस के कैडारके में विकसित हो रहे विशाल नाभिकीय परिसर के घटकों के लिए लगभग दस प्रतिशत का योगदान कर रहा है। नई दिल्ली क्षरा किए जाने वाला योगदान वर्ष 2021 में पूरा होने पर विश्व का सबसे बड़ा रेफरीजरेटर होगा। यह
थमर्स फ्लास्क के रूप में काम करता है और यह ऋणात्मक 269 डीग्री सेल्सियस (-269 सेल्सियस) पर कार्य करते हुए ब्रहमाण्ड में कभी प्राप्य कुछ शीतलतम ताप पर प्रचालन करता है। इसे तकनीकी रूप से निम्न ताप स्थायी ‘’क्रालोस्टेट’’ कहा जाता है। इसका निर्माण एल एण्ड
टी उद्योगों द्वारा नाभिकीय ऊर्जा विभाग के क्रयादेश के लिए तैयार किया जा रहा है। हेवी इंजीनियरिंग तथा एल एण्ड टी इंडस्ट्रीज, मुम्बई के अध्यक्ष, एम. वी. कोटवाल ने बताया है कि क्रायोस्टेट के विनिर्माण एवं स्वंस्थापना का कार्य एल एण्ड टी को सौंप दिया गया
है। हमारे हजारिया विनिर्माण परिसर में इस पिरयोजना संबंधी कार्य पहले से ही प्रगति पर है। हमने कैडारके, फ्रांस में भी एक विशेष कार्यशाला का निर्माण भी किया है ताकि घटकों से विशाल एवं पटिल स्टेनलेस स्टील का संयोजन कार्यस्थल पर ही किया जा सके, जिसकी भारत में
हजारिका के द्वारा आपूर्ति की जाएगी।
भारत संभवत: अगले दशक तक लगभग 900 करोड़ रूपए की राशि की कुल नकद निवेश करेगा जो कुल लागतों की शेयर में लगभग 9.1 योगदान होगा।
सिन्हां कहते हैं, आई टी ई आर परियोजना में असीम वैज्ञानिक प्रतिभा एवं औद्योगिक सक्षमता के साथ इसमें अपनी भागीदारी से भारत की इस विशाल परियोजना में अत्याधुनिक प्रौद्योगिकियों के प्रदर्शन में विशेषज्ञता प्राप्त करने का अवसर प्राप्त हुआ है। हाल के समय में,
इसने वैज्ञानिक अनुसंधान, जनशक्ति विकास तथा फ्यूजन ऊर्जा के अति उन्नत क्षेत्र में भारतीय निजी सेक्टर के भीतर अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धात्मक औद्योगिकीय सक्षमता के निर्माण में महत्वपूर्ण विकास में सहायता प्रदान की है।
एक बार यह प्रमाणित हो जाने के बाद कि मानव जाति सूर्य की शक्ति का उपयोग कर सकती है, भारत वर्ष 2050 के बाद बहुत शीघ्र ही अपनी स्वयं की फ्यूजन रिएक्टरों की संभावनाएं दृढ़ कर सकता है और इस तरह असीमित ऊर्जा की उत्पत्ति होगी।
मोदी जी ने कहा कि इसरो ने ‘असंभव को संभव बनाने’ की अपनी जिद बना ली है। इस तरह, ‘मेक इन इंडिया’ अभियान में अपेक्षाकृत अधिक सस्ता, स्थायी तथा विश्वसनीय उपग्रहों के लिए पूरी तरह रास्ता प्रशस्त कर सका है जिसका मोदी जी ने उद्घाटन किया है। कई बिलियन डॉलर वाले
अंतरिक्ष एवं नाभिकीय ऊर्जा बाजार का दोहन किया जाना है।
इस दृढ़ नए पहल में मोदी जी ने ‘शून्य त्रुटि, शून्य दुष्प्रभाव विनिर्माण जो दुष्प्रभाव से मुक्त हो और पर्यावरण पर जिसका कोई प्रतिकूल प्रभाव न पड़े’ के लिए वैश्विक रूप से महत्ता प्राप्त ‘’ब्रांड इंडिया’’ को प्रसिद्ध बनाने हेतु।
(पल्लव बागला, प्रख्यात विज्ञान विषयों के लेखक, लूम्सबरी इंडिया द्वारा प्रकाशित पुस्तक
''तारों पर पहुंचना भारत का मंगल तथा अन्य दूरस्थ ग्रहों की यात्रा’’ के सह-लेखक हैं। इन्हें bagla@gmail.com तथा Twitter; pallavabagla पर विजिट किया जा सकता है।)